भारतीय संस्कृति (डॉ० राजेन्द्र प्रसाद )

निम्नलिखित गद्यांश पर आधारित दिए, गए प्रश्नों के उत्तर हल सहित |

गद्यांश -1

आज हम इसी निर्मल, शुद्ध, शीतल और स्वस्थ अमृत की तलाश में हैं और हमारी इच्छा, अभिलाषा और प्रयत्न यह है कि वह इन सभी अलग-अलग बहती हुई नदियों में अभी भी उसी तरह बहता रहे और इनको वह अमर तत्व देता रहे, जो जमाने के हजारों थपेड़ों को बरदाश्त करता हुआ भी आज हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है और रखेगा।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर-(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है जिसके लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी हैं।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या- आज के भटके एवं मृतप्राय समाज को निर्मल, शीतल, विशुद्ध एवं स्वस्थ संस्कृति रूपी अमृत की आवश्यकता है जिससे अनेकता एकता में बदल सके। विविध विचारधारा की नदियाँ एक हो जायें तथा वे अमर सत्य. की भाँति युगों-युगों तक चलती रहें जिससे हमारी अस्मिता स्थिर रूप में कायम रह सके।
(स) हमारे अस्तित्व को कौन कायम रखे हुए है?
उत्तर-(स) हमारी संस्कृति ही हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है।

आज हम इसी निर्मल, शुद्ध, शीतल और स्वस्थ अमृत की तलाश में हैं और हमारी इच्छा, अभिलाषा और प्रयत्न यह है कि वह इन सभी अलग-अलग बहती हुई नदियों में अभी भी उसी तरह बहता रहे और इनको वह अमर तत्व देता रहे, जो जमाने के हजारों थपेड़ों को बरदाश्त करता हुआ भी आज हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है और रखेगा।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर-(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है जिसके लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी हैं।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या- आज के भटके एवं मृतप्राय समाज को निर्मल, शीतल, विशुद्ध एवं स्वस्थ संस्कृति रूपी अमृत की आवश्यकता है जिससे अनेकता एकता में बदल सके। विविध विचारधारा की नदियाँ एक हो जायें तथा वे अमर सत्य. की भाँति युगों-युगों तक चलती रहें जिससे हमारी अस्मिता स्थिर रूप में कायम रह सके।
(स) हमारे अस्तित्व को कौन कायम रखे हुए है?
उत्तर-(स) हमारी संस्कृति ही हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है।

गद्यांश -2

व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास दूसरे की उन्नति और विकास में बाधक हो, तो संघर्ष उत्पन्न होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है, जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा-तत्त्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है। अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है और हिंसा का दूसरा रूप या दूसरा नाम स्वार्थ है, जो प्रायः भोग के रूप में हमारे सामने आता है। पर हमारी सभ्यता ने तो भोग भी त्याग ही से निकाला है और भोग भी त्याग में ही पाया है। श्रुति कहती है- ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर-(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘गद्य – खण्ड’ के ‘भारतीय संस्कृति’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० राजेन्द्रप्रसाद हैं।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि हमारी भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार अहिंसा तत्त्व ही है। इसीलिए हमारे ग्रन्थों में जहाँ कहीं भी नैतिक सिद्धान्तों की बात कही गई है, वहाँ मन, वचन और कर्म से हिंसा न करने का उल्लेख अवश्य किया गया है। लेखक ने अहिंसा को त्याग का नाम दिया है। त्याग करना ही अहिंसा है और दूसरे रूप में अहिंसा ही त्याग है। अहिंसा और त्याग दोनों में कोई अन्तर नहीं है। ठीक इसी प्रकार हिंसा का दूसरा नाम अथवा दूसरा रूप स्वार्थ है। हिंसा ही स्वार्थ है और स्वार्थ का पर्याय हिंसा है। दोनों में उतना ही घनिष्ठ सम्बन्ध है, जितना अहिंसा और त्याग में। एक मानव दूसरे मानव को कष्ट अथवा हानि तब पहुँचाता है, जब वह स्वार्थ के वश में हो जाता है। अत: स्वार्थ का दूसरा नाम हिंसा है और हिंसा अथवा स्वार्थ का अर्थ है- भोग । भारतीय दर्शन के अनुसार भोग की उत्पत्ति त्याग से हुई है और त्याग भी भोग में ही पाया जाता है। उपनिषद् में कहा गया है कि संसार का भोग, त्याग की भावना से करो। यहाँ त्याग में ही भोग माना गया है। भोग के लिए एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से झगड़ा करता है, लड़ता है और समाज में उसका विरोध करता है। भोग के कारण ही एक समाज का दूसरे -समाज से अथवा एक देश का दूसरे देश से संघर्ष होता है; अत: इन समस्त विरोधों को पूरी तरह नष्ट करने के लिए त्याग की भावना का उत्पन्न होना अनिवार्य है। त्याग की भावना मन में आते ही चित्त में अपार सुख अथवा शान्ति का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार त्याग अथवा अहिंसा भारतीय संस्कृति का वह तत्त्व है, जो संसार में व्याप्त समस्त व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, देश-विदेशगत विरोधों को समाप्त कर सकता है .
(ग) हमारी संस्कृति का मूलाधार क्या रहा है?
उत्तर-(ग) हमारी संस्कृति का मूलाधार अहिंसा-तत्त्व रहा है।
(घ) हमारे नैतिक सिद्धान्तों में किस चीज़ को प्रमुख स्थान दिया गया है? इसका दूसरा रूप क्या है?
उत्तर :(घ) हमारे नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया गया है। इसका दूसरा रूप त्याग है।

गद्यांश -3

यह एक नैतिक और आध्यात्मिक स्रोत है, जो अनन्त काल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण देश में बहता रहा है और कभी-कभी मूर्त रूप होकर हमारे सामने आता रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है कि हमने ऐसे ही एक मूर्त रूप को अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते भी देखा है और जिसने अमरत्व की याद दिलाकर हमारी सूखी हड्डियों में नयी मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नये प्राण फूँके और मुरझाये हुए दिलों को फिर खिला दिया। वह अमरस्व सत्य और अहिंसा का है, जो केवल इसी देश के लिए नहीं, आज मानव-मात्र के जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया है। हम इस देश में प्रजातन्त्र की स्थापना कर चुके हैं, जिसका अर्थ है व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह अपना पूरा विकास कर सके और साथ ही सामूहिक और सामाजिक एकता भी।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर-(अ) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है जिसके लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी हैं।
(ब) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या- हमारी संस्कृति नीतिपरक है। उसमें आध्यात्मिकता है जो असीमित समय से प्रत्यक्ष पूर्व अप्रत्यक्ष रूप से हमारे पूरे देश में बहती रही है तथा कभी-कभी वह मूर्त रूप में हमारे समक्ष आती रही है।
जो हमें नवजीवन देने वाला है, हमारे मुरझाये हृदयों को विकसित करने वाला है। यह तत्व अमर सत्य है जिसे हमने तप माना है, ईश्वर माना है तथा इसके साथ ही दूसरा अमर तत्व अहिंसा है जिसे हमने ‘परमोधर्मः’ कहा है।
(स) हमारे अस्तित्व को कौन कायम रखे हुए है?
उत्तर-(स) सत्य और अहिंसा के अमरत्व ने हमारे अस्तित्व को कायम रखा है।
(द) लेखक ने गद्यांश में क्या सन्देश देना चाहा है?
उत्तर-(द) सत्य और अहिंसा हमारे जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है।