मित्रता (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल )

निम्नलिखित गद्यांश पर आधारित दिए, गए प्रश्नों के उत्तर हल सहित |

गद्यांश -1

विश्वासपात्र मित्र से बड़ी रक्षा रहती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाये उसे ऐसा समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।’ विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है, ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर- (अ) सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘मित्रता’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है जिसके लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं। इस पाठ में लेखक ने सच्चे मित्र के गुणों का वर्णन किया है।
(ब) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – विश्वासपात्र मित्र हमारा सच्चा रक्षक होता है। ऐसा मित्र मिलना खजाना मिलने के समान है। विश्वासपात्र मित्र को हम जीवनरक्षक संजीवनी औषधि का नाम दे सकते हैं। औषधि शरीर के दोषों को दूर करती है और उत्तम मित्र मानसिक दोषों और बुराइयों को दूर करता है तथा हमें मानसिक व्याधियों से सर्वथा विमुक्त बनाता है।
अच्छे मित्र में उत्तम वैद्य के समान निपुणता तथा परख होती है। जैसे अच्छा वैद्य रोगी के शारीरिक दोषों को चतुरता से समझ लेता है और रोग की परख करके उसकी उचित चिकित्सा करता है, उसी प्रकार सच्चा मित्र अपने मित्र की बुराइयों को समझकर बड़ी चतुराई से उन बुराइयों को दूर करता है। उत्तम मित्र में अच्छी माता के समान धैर्य और कोमलता होती है। जिस प्रकार सन्तान के थोड़े-से भी कष्ट को देखकर माता का कोमल हृदय पसीज उठता है और वह बड़े धैर्य के साथ सन्तान के कष्टों को दूर करने का उपाय करती है ठीक उसी प्रकार सच्चा मित्र भी अपने मित्र के कष्टों से दुःखी होता है और मित्र के कष्टों को दूर करने का उपाय सोचता है। प्रत्येक मनुष्य को इसी प्रकार के लोगों से मित्रता करनी चाहिए।
(स) उत्तम मित्र से क्या अपेक्षा रखनी चाहिए?
उत्तर- (स) उत्तम मित्र से यह अपेक्षा (आशा) रखनी चाहिए कि वे हमें उत्तम संकल्पों से दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, कुमार्ग तथा हताशा से बचायेंगे ।
(द) लेखक ने सच्ची मित्रता की तुलना किससे की है?
उत्तर-(द) लेखक ने सच्ची मित्रता की तुलना निपुण वैद्य और धैर्यशीला माता से की है।
(य) विश्वासपात्र मित्र की तुलना किससे की गयी है?
उत्तर- (य) विश्वासपात्र मित्र की तुलना औषधि से की गयी है।

गद्यांश -2

हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं जिसे जो जिस रूप का चाहे उस रूप का करे-चाहे राक्षस बनावे, चाहे देवता । ऐसे लोगों का साथ हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ संकल्प के हैं: क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ करना और बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है, और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर- (अ) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रचित ‘मित्रता’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में सच्चे मित्र के गुणों का वर्णन किया गया है।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि जब हम समाज में प्रवेश करके अपना कार्यारम्भ करते हैं तब हमारा चित्त कोमल होता है और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित एवं अपरिपक्व रहते हैं। वास्तव में उस कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होते हैं जिसे जो चाहे जैसा ढालकर उसका रूप निखार ले। चाहे तो वह एक दुष्ट राक्षस के हम रूप में हमें बना दे और चाहे तो देवतुल्य बना दे। हमारे हृदय में राक्षसी प्रवृत्तियाँ पैदा कर दे और चाहे तो हमारे मन में दैवीय भरकर हमें देवतुल्य बना दे। जो बुरे हैं उनका साथ बुरा है. जिनकी दृढ़ इच्छाशक्ति हमसे अधिक है तब हम उनका अनुकरण व गुण अनुसरण ही करेंगे। उनकी बात को हम प्रत्येक दशा में मान ही लेंगे, कोई विरोध नहीं कर सकेंगे।
(स) हमें किन लोगों का साथ नहीं करना चाहिए?
उत्तर-(स) हमें अपने से अधिक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले बुरे लोगों के साथ कदापि नहीं रहना चाहिए, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं उनके साथ भी नहीं रहना चाहिए। ऐसे में हमारे ऊपर कोई अंकुश नहीं रहता है तथा न कोई हमें सहारा देने वाला ही होता है अतः पतन निश्चित होता है।

गद्यांश -3

उनके लिए न तो बड़े-बड़े वीर अद्भुत कार्य कर गए हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं, जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्त्विकता की उमंगें उठती हैं। उनके लिए फूल-पत्तियों में कोई सौन्दर्य नहीं, झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त सागर-तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा जो तरस न खाएगा? ऐसे प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर : (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित पाठ ‘मित्रता’ से उद्धृत है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं
(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या-आचार्य शुक्ल के अनुसार आचरणविहीन युवकों को प्रकृति में किसी भी प्रकार का सौन्दर्य दिखाई नहीं देता, कल-कल का निनाद करते झरनों में उन्हें मधुर संगीत की अनुभूति नहीं होती। सागर की अनन्त लहरों में छिपे जीवनोपयोगी ज्ञान का भी उन्हें कोई आभास नहीं होता। इस प्रकार के दुर्भाग्यशाली युवक अपने सद्प्रयासों एवं पुरुषार्थ पर आधारित उपलब्धि से वंचित होते हैं।आचरणहीन व्यक्तियों के लिए संसार के महान् व्यक्तियों, उच्च आदर्शों, पुरुषार्थ, सच्चे प्रेम, सात्त्विकता, ज्ञानानुभूति आदि का अस्तित्व ही नहीं होता। ये व्यक्ति सदैव अपने नीच उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहते हैं। बुरे विचारों के कारण इनका हृदय कलुषित हो चुका है। लेखक के अनुसार ऐसे व्यक्ति विनाश की ओर अग्रसर हैं और दया के पात्र हैं। ऐसे लोगों की संगति, चाहे वह जान-पहचान के रूप में ही क्यों न हो, अच्छे चरित्र के व्यक्तियों को भी पतित कर सकती है। इसलिए ऐसे लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए।
(ग) लेखक किस व्यक्ति पर तरस खाने की बात कह रहा है?
उत्तर :(ग) लेखक उस व्यक्ति पर तरस खाने की बात कह रहा है, जो अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है और जिसका हृदय नीचाशयों एवं कुत्सित विचारों से कलुषित है।
(घ) हमें किस प्रकार के प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए?
उत्तर :(घ) जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय विषयों में ही लिप्त है; जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए।

गद्यांश -4

कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी, तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्ढे में गिराती जायगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देनेवाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायगी।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर : (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित पाठ ‘मित्रता’ से उद्धृत है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या- जीवन में संगति के प्रभाव को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते हुए आचार्य शुक्ल कहते हैं कि बुरे और दुष्ट लोगों की संगति एक भयानक ज्वर के समान है। जिस प्रकार भयानक ज्वर शरीर की सम्पूर्ण शक्ति को क्षीण कर देता है, उसी प्रकार दुष्टों की संगति में पड़ा व्यक्ति अपनी बुद्धि, विवेक, सदाचार आदि को भी खो बैठता है। बुरी संगति के प्रभाव में पड़कर व्यक्ति अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित का भी ज्ञान खो देता है। विशेष रूप से युवावस्था में जो लोग बुरी संगति में पड़ जाते हैं, वे कभी उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो पाते। सुसंगति एक ऐसी बाँह के समान है, जो गिरे हुए को उठाती है तथा गिरते हुए को सहारा देती है, अर्थात् सत्संगति मिल जाने पर बुरी संगति में पड़ा हुआ व्यक्ति भी उन्नति की ओर बढ़ सकता है।
(ग) गद्यांश में क्या सन्देश दिया गया है?
उत्तर :(ग) गद्यांश में कुसंग को त्यागने और सत्संगति करने का सन्देश दिया गया है।
(घ) कुसंग के ज्वर को सबसे भयानक क्यों कहा गया है?
उत्तर :(घ) किसी भी प्रकार का भयानक ज्वर व्यक्ति की शारीरिक शक्ति का नाश करके उसे दुर्बल बनाता है, जबकि कुसंग का ज्वर उसकी नीति, सद्वृत्ति और बुद्धि का नाशकर उसकी आत्मा को दुर्बल बनाता है, इसीलिए कुसंग के ज्वर को सबसे भयानक कहा गया है।
(ङ) बुरी संगति से व्यक्ति की क्या हानि होती है?.
उत्तर :(ङ) बुरी संगति व्यक्ति को निरन्तर अवनति के गड्ढे में गिराती जाती है; क्योंकि वह उसकी नीति, सद्वृत्ति और बुद्धि का नाश करती है।
(च) युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो उसका क्या परिणाम होगा?
उत्तर :(च) युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो उसका परिणाम यह होगा कि उसे पैरों में बँधी चक्की के समान लगातार अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी। यदि उसकी संगति अच्छी होगी तो वह बलशाली भुजा की भाँति उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी तथा उसका पतन नहीं होने देगी।

गद्यांश -5

बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता, जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं जिनके घड़ीभर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं।
(क) गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर : (क) पाठ – मित्रता। लेखक- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या- कुछ लोग इतनी बुरी मानसिकता के होते हैं कि उन्हें अश्लीलता के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं। ऐसे लोग प्रतिपल अश्लील बातें करते हैं। इनका कुछ समय का साथ ही व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट बना देता है। ये लोग ऐसी भद्दी और नीच बातें करते हैं, जिनको भले व्यक्ति द्वारा न तो सुना जाना चाहिए और न ही कहा जाना चाहिए। ये बातें व्यक्ति के पवित्र मन को कलुष बना देती हैं।
(ग) व्यक्ति पर बुरी बात का प्रभाव जल्दी होता है, इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :(ग) व्यक्ति पर बुरी बात का प्रभाव जल्दी होता है, इसीलिए भद्दे और फूहड़ गीत जितनी जल्दी याद होते हैं, उतनी जल्दी अच्छी बातें याद नहीं होतीं।
(घ) आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर :(घ) आध्यात्मिक उन्नति के लिए अच्छे लोगों की संगति आवश्यक है।

गद्यांश -6

जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता है कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जायगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुंठित हो जायगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जायगी। अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर : (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘गद्य – खण्ड’ के ‘मित्रता’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं।
(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या – जब मनुष्य किसी बुराई की ओर एक कदम बढ़ा देता है और वह उस बुराई को एक बार अपना लेता है तो वह फिर यह सोचना छोड़ देता है कि वह जिस बुराई की ओर बढ़ रहा है, उससे उसके चरित्र पर कितना बड़ा कलंक लग सकता है, इससे उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और चरित्र का कितना पतन हो सकता है। धीरे-धीरे व्यक्ति बुराइयों का आदी हो जाता है। इस प्रकार बुराई के प्रति व्यक्ति के मन में स्थित घृणा कम होती जाती है।
जब हमारी उचित-अनुचित का निर्णय करनेवाली विवेक-शक्ति समाप्त होती जाती है और हमें भले-बुरे की कोई पहचान नहीं रह जाती। इसके परिणामस्वरूप अन्त में व्यक्ति बुराई का भक्त होकर उसमें लिप्त हो जाता है और उससे उसे कोई चिढ़ अथवा घृणा भी नहीं होती। इसलिए स्वयं को बुराई से बचाए रखने और हृदय को पवित्र एवं निष्कलंक बनाए रखने का एकमात्र उपाय यही है कि व्यक्ति को बुरी संगति से बचना चाहिए।
(ग) लेखक यहाँ किस बात के प्रति सावधान रहने को कहता है?
उत्तर :(ग) लेखक उन लोगों के प्रति सावधान रहने को कहता है, जो फूहड़, अश्लील और अपवित्र बातें करते हैं और इन बातों से हमें हँसाना चाहते हैं।
(घ) ‘कीचड़ में पैर डालने’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :(घ) ‘कीचड़ में पैर डालने’ से तात्पर्य बुराई में प्रवेश करने से है।