कर्मवीर भरत

प्रश्न 1. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (आगमन) की कथावस्तु लिखिए।

उत्तर—आगमन सर्ग (प्रथम सर्ग) – इसमें अयोध्या से दूत के ननिहाल पहुँचने से लेकर भरत के अयोध्या आने तक का वृत्तान्त वर्णित है और अयोध्या में व्याप्त शोकपूर्ण वातावरण के साथ-साथ तत्कालीन संस्कृति पर भी प्रकाश डाला गया है।भरत एवं शत्रुघ्न, दोनों अपनी ननिहाल गये हुए थे। अयोध्या के दूत ने वहाँ पहुँचकर दोनों भाइयों को सूचित किया कि आप दोनों राजकुमारों को यथाशीघ्र गुरु वशिष्ठ ने अयोध्या बुलाया है। भरत ने पारिवारिक कुशल क्षेम जाननी चाही लेकिन दूत अपनी भावनाओं को दबाते हुए मौन ही रहा तथा वह दशरथ की मृत्यु एवं राम बनवास के ‘समाचार को छिपा गया। भरत एवं शत्रुघ्त मामा की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन्हें मार्ग शून्य- सम प्रतीत हुआ। अयोध्या नगरी में शून्यता देखकर तो उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने देखा कि उनके आगमन पर किसी प्रकार का उल्लास नहीं दिखलाई दिया। न कोई स्वागत, न ही कोई नाचगान । राजभवन मूक- इंगितों का केन्द्र बन चुका था । बुद्धिमान भरत ने अमंगल भाँप लिया कि कोई न कोई अमंगल हो गया है लेकिन क्या हो गया, इस वास्तविकता का उन्हें पता नहीं चला। वे सर्वप्रथम सीधे अपने पूज्य पिता दशरथ जी के भवन में ही पहुँचे। वहाँ की शून्यता देखकर तो उनका मन एकदम विचलित हो उठा। उन्होंने राजभवन के द्वार पर किसी द्वारपाल अथवा मन्त्री तक को नहीं देखा । तब वे अति व्याकुल हुए और अपनी माता कैकेयी के भवन की ओर चल पड़े।

प्रश्न 2. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के 'राजभवन सर्ग' (द्वितीय सर्ग) का सारांश लिखिए।

उत्तर – इस सर्ग में भरत कैकेयी मिलन के साथ-साथ राम-वन- गमन की संक्षिप्त कथा के अतिरिक्त यह अभिव्यक्त किया गया है कि कैकेयी ने राम को जन-सेवा तथा व्यक्तित्व के विकास के लिए वन भेजा था। किसी लोभ या कठोरता के कारण नहीं। सर्ग के अन्त में अपनी नीति-कुशल माता की बुद्धि भ्रष्ट हुई जानकर मन में शोक का भार लिए भरत, शत्रुघ्न के साथ कौशल्या माता से मिलने के लिए चले जाते हैं।
भरत कैकेयी मिलन – भरत को आया देखकर कैकेयी ने उसे गले लगा लिया। कैकेयी द्वारा पितृकुल का कुशल पूछने के पश्चात और तनिहाल का कुशल सुनाने के पश्चात भरत ने अयोध्या की उदासी का कारण पूछा। कैकेयी ने कहा, “काल-गति से तुम्हारे पिता स्वर्ग सिधार गये और राजपाट तुम्हें सौंप गये हैं।” पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर भरत जी भूमि पर गिर पड़े।
कैकेयी का कथन-भरत ने कैकेयी से मृत्यु का कारण पूछा। कैकेयी ने भरत को समझाया – “बेटा ! मुझे राम तुमसे अधिक प्यारा है। परन्तु जब महाराज राम का राज्याभिषेक करने की तैयारी करने लगे तो मैंने सोचा कि यदि राम अयोध्या पर राज्य करेंगे तो वन में वनवासियों के दुःखों को कौन देखेगा ? मन्थरा ने मुझे भूले हुए दो वरदानों की याद दिला दी। मैंने एक वरदान से तुम्हें राजतिलक और दूसरे वरदान से राम को चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया। बेटा ! मुझे विश्वास था कि तुम राम का कार्य समझकर चौदह वर्षों तक अयोध्या का राज्य करोगे। बेटा ! राम प्रतिभा सम्पन्न और कीर्तिमान हैं। वे दुःखियों की सेवा, सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का संहार करने में समर्थ हैं। बेटा ! माता का कर्तव्य है अपने पुत्रों का सही संयोजन करना। जो जिस योग्य है, उसको वही काम सौंपना उचित है। हानि-लाभ, दुःख-सुख के विवाद में फंसना अज्ञानियों का काम है। यही सोचकर मैंने अपना दूसरा वरदान – राम को वनवास – मांगा और महाराज ने भी सत्य की रक्षा करते हुए अपना वचन पूरा किया। राम, लक्ष्मण और सीता अपने जीवन को सफल बनाने हेतु वन में चले गये हैं।”
कैकेयी के कठोर वचनों को सुनकर भरत को अपनी माता पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने माता को इन कार्यों के लिए दोषी ठहराया और राम के बिना अपने जीवन को दोषी ठहराया। कैकेयी ने भरत को अनेक प्रकार से समझाया किन्तु उनका मन शोक और ग्लानि में डूबा रहा । शान्ति उन्हें मिल नहीं पायी । अन्त में वे किसी तरह साहस और शक्ति बटोरकर शत्रुघ्न सहित माता कौशल्या के दर्शनार्थ चल दिये।

प्रश्न 3.'कर्मवीर भरत' के आधार पर 'कौशल्या- सुमित्रा मिलन' नामक तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – इस सर्ग में भरत माता कौशल्या और सुमित्रा से मिलते हैं और दोनों माताएँ उनकी आत्म – ग्लानि को दूर कर उन्हें सच्चे जीवन-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। सर्ग के अन्त में सुमित्रा, भरत से कहती है कि “तुम अपने मन के क्षोभ का त्यागकर दो और हम सबके पथ-प्रदर्शक बनकर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करो। “
कौशल्या मिलन- भरत का आगमन सुनकर कौशल्या का हृदय प्रेम से भर गया। भरत और शत्रुघ्न ने विकल कौशल्या को प्रणाम किया। भरत ने कौशल्या से पिता की मृत्यु का कारण पूछा और अन्तिम समय पिता के दर्शन न कर पाने के लिए अपने को दुर्भाग्यशाली बताया। शोक सागर में निमग्न भरत अपनी माता कैकेयी के कार्यों पर पश्चाताप करते हैं।
कौशल्या ने भरत को समझाया। उन्होंने कहा कि जो हानि होती है, वह होकर रहती है। दोष न तुम्हारा है, न कैकेयी का । कैकेयी राम को मुझसे अधिक प्रेम करती है और राम भी मुझसे अधिक कैकेयी को मानता है। यदि कैकेयी की बात मानकर राम वन में चला गया तो तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। इसलिए बेटा ! उठो और अपने कर्तव्य का पालन करो। कर्मशील मनुष्य अपयश और निन्दा की परवाह न करके महान कार्य करते हैं। अतः कैकेयी के दोषों को भुलाकर जनहित के कार्यों में लग जाओ। तुम्हारा यश अमर हो जायेगा।
सुमित्रा मिलन – भरत के आगमन का समाचार सुनकर सुमित्रा उससे मिलने दौड़ी आयी। सुमित्रा ने दोनों पुत्रों को स्नेह – “तुम्हारा कोई दोष से गले लगाकर आशीर्वाद दिया। भरत ने कैकेयी के कार्यों की निन्दा की तो सुमित्रा ने भरत को समझाया-‘ नहीं। राज्य का तुम्हें लोभ नहीं, तुम तो विदेह हो । जैसे राम पिता की आज्ञा मानकर वन को चले गये उसी प्रकार तुम भी अपने कर्तव्यों का पालन करो और चौदह वर्षो तक तप कर कंचन बन जाओ, तभी तुम्हारे आदर्श, सिद्धान्त और व्यक्तित्व सफल “मेरे लिए राज्य क्यों माँगा, वन क्यों नहीं माँगा ?” सुमित्रा ने होंगे।” भरत का संशय कुछ दूर हुआ, परन्तु उसका प्रश्न था – ‘ कहा – “वन में राक्षस उत्पात करते हैं, साधुजनों और ऋषि-मुनियों को सताते हैं। राम उन पर शासन कर सकते है। इसलिए जनहित के लिए कैकेयी ने राम को वन में भेजा है। तुम अपने मन में हीन भावना मत लाओ और अपने कर्तव्य का पालन करो।”
सुमित्रा ने भरत से फिर कहा – ” इस समय तुम ही हमारा सहारा हो । यदि तुम इस प्रकार धैर्य खोओगे तो हमारा क्या होगा? क्या होगा वधु उर्मिला और माण्डवी का ! कैसे हम अपने आँसुओं को सम्भाल पायेंगी ! इसलिए बेटा ! धैर्य धारण करा । दु:ख, चिन्ता और ग्लानि को छोड़कर हमारा पथ-प्रदर्शन करो और राज्य का कार्य सम्भालो ।” इतना कहकर सुमित्रा ने दोनों भाइयों को गुरु वशिष्ठ के पास भेज दिया।

प्रश्न 4. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग ( आदर्शवरण) की कथा संक्षेप में लिखिए।

उत्तर – इस सर्ग में गुरु वशिष्ठ भरत को संसार की नश्वरता के सम्बन्ध में बताते हुए कहते हैं कि इस जीवन के रंगमंच पर हम सभी अभिनय करते हैं। ईश्वर ही सूत्रधार तथा संचालक होता है। माता कौशल्या और सुमित्रा से मिलकर भरत गुरु वशिष्ठ की सेवा में पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त किया। गुरु वशिष्ठ ने भरत को सान्त्वना दी और तेल में सुरक्षित रखे हुए महाराज दशरथ के शरीर का विधिवत दाह संस्कार करने की आज्ञा दी । भरत ने पिता के शव को देखकर विलाप किया और उनका दाह संस्कार कर दिया। वशिष्ठ ने बड़े स्नेह से भरत को पास बैठाया। सुमन्त ने उन्हें पिता की आज्ञा के अनुसार सिंहासन पर बैठकर राज करने के लिए निवेश किया। परन्तु भरत ने कहा- “रघुकुल की यह परम्परा है कि ज्येष्ठ पुत्र ही सिंहासन प्राप्त करता है।” सुमन्त ने भरत से पुन: निवेदन किया कि पिता की आज्ञा के अनुसार राम की अनुपस्थिति में राज्य के कार्य को चलाना अधर्म नहीं है, फिर भी भरत तैयार नहीं हुए। उन्होंने गुरु जी से राम को मनाकर वापस लाने के लिए अनुमति मांगी। गुरु वशिष्ठ द्वारा आज्ञा दे देने से सारी अयोध्या नगरी में हर्ष का वातावरण हो गया। गुरु की आज्ञा पाकर भरत राजभवन गये। उन्होंने शत्रुघ्न से कहा – “मैं वन जा रहा हूँ। मेरे आने तक तथा प्रज करना ।” शत्रुघ्न ने आग्रह किया कि जैसे लक्ष्मण राम के साथ वन में गये हैं उसी प्रकार मै भी आपके साथ वन में चलूँगा ! उसी समय तैयार हो गयीं। सुमित्रा भी आ गयी। उन्होंने कहा- शत्रुघ्न भी तुम्हारे साथ जायेगा। इसके पश्चात तीनों माताएँ भी वन जाने के सुबह होने तक सारी प्रजा वन में जाने को तैयार हो गयी। इस प्रकार गुरु वशिष्ठ, शत्रुघ्न, माताओं तथा प्रजाजनों के साथ भरत राम को लौटाने चल दिये। दिन भर चलकर वे तमसा नदी पर पहुँचे। कुछ देर विश्राम किया और फिर गोमती नदी को पार किया तथा आगे बढ़े।

प्रश्न 5. 'कर्मवीर भरत' के पंचम सर्ग 'वनगमन' का सारांश लिखिए।

उत्तर—इस सर्ग में भरत के वन – प्रस्थान का वर्णन है। इसमें निषादराज की रामभक्ति एवं सेवा-भावना का भी सुन्दर वर्णन हुआ है।भरत गोमती नदी को पार करके गंगा तट पर श्रृंगवेरपुर पहुँचे। वहाँ निषादराज ने जनसमूह के साथ इक्ष्वाकु वंश का झण्डा देखा। उन्हें शंका हुई कि भरत वन में राम पर आक्रमण करने के लिए जा रहा है। निषादराज ने अपने साथियों को भरत को रोकने के लिए कहा, परन्तु किसी वृद्ध ने कहा कि उनकी शंका निर्मूल है क्योंकि भरत के साथ गुरु वशिष्ठ और माताएँ भी हैं, अत: भरत का सत्कार करना चाहिए। वृद्ध की बात सुनकर लज्जित निषादराज कन्द-मूल आदि की भेंट लेकर भरत की सेवा में उपस्थित हुआ। भरत के भावों को जानकर उसने कहा कि भरत के समान भाई इस संसार में कोई दूसरा नहीं है।
राम के प्रति निषादराज का प्रेम देखकर भरत निषादराज को गले लगाकर मिले। उन्होंने शीघ्र राम के दर्शन कराने के लिए कहा। निषादराज की आज्ञा से उसके साथियों ने सब लोगों को गंगा पार करायी। निषादराज भी भरत के साथ चल दिये। वे भरत को भरद्वाज ऋषि के आश्रम में ले गये । भरत ने ऋषि को प्रणाम किया। भरद्वाज ऋषि ने सबको रामदर्शन के लिए व्याकुल जानकर उन्हें चित्रकूट जाने के लिए कहा।

प्रश्न 6. 'कर्मवीर भरत' के षष्ठ सर्ग अन्तिम सर्ग 'राम-भरत मिलन' का सारांश लिखिए।

उत्तर- इस सर्ग में राम से भरत का मिलन होता है। भरत और कैकेयी राम से अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं। लक्ष्मण का मन कुछ शंकित हुआ, परन्तु भरत का नाम सुनकर पुलकित होकर राम चरण पादुका के बिना ही कुटी के बाहर आ गये। उन्होंने भरत को स्नेहसहित गले से लगा लिया। शत्रुघ्न ने राम और लक्ष्मण के चरण स्पर्श किये। इसके बाद दोनों भाइयों ने सीता के चरणों में शीश झुकाकर ‘सदा सुखी जीवन जीने का आशीर्वाद प्राप्त किया। गुरु का आगमन सुनकर राम आदरसहित उन्हें आश्रम में ले गये। माताओं चरण छूकर और सुमन्त से भेंट करके राम अति हर्षित हुए। पिता की मृत्यु की बात सुनकर व्याकुल होकर ‘हाय पिता’ कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े तथा गुरु समझाने पर तर्पणादि कार्य करके निवृत्त हुए।
चित्रकूट में राम के प्रेम में विभोर हुए सबके कई दिन बीत गये । चित्रकूट के वन-उपवनों की प्राकृतिक सुषमा ने उनका मन मोह लिया था। अवसर पाकर भरत ने कहा कि मैं राम का प्रतिनिधि बनकर वन में निवास करूँगा। हम सबकी विनती स्वीकार कर राम अयोध्या जाएँ, कैकेयी ने राम से कहा – “पुत्र ! मैं इस दुःखमय नाटक की सूत्रधारिणी हूँ। तुम राज्य प्राप्त करके मेरे कलंक को मिटाओ।” गुरु ने भी कैकेयी का समर्थन किया। कैकेयी के वचन सुनकर राम ने कहा – “माता! इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। काल की गति ही वक्र है। भरत को राज्य का मोह नहीं है, फिर भी मैं अयोध्या जाकर राज्य नहीं कर सकता। भरत धर्मनिष्ठ होकर भी प्रेम-सिन्धु में डूब रहा है। यदि वह कहे तो मैं पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर अयश के सागर में डूब सकता हूँ।
भरत ने कहा- “हे प्रभु! मैं नन्दिग्राम में कुटी बनाकर सिंहासन पर आपकी चरण-पादुकाएँ रखकर चौदह वर्ष तक वनवासी की तरह निवास करूँगा और आपका प्रतिनिधि बनकर जनसेवा करता रहूँगा। आप मुझे चौदह वर्ष की अवधि बीतने पर लौट आने का आश्वासन दीजिए।”
राम ने अपनी चरण-पादुकाएँ दे दीं। भरत ने अयोध्या न जाकर नन्दिग्राम में कुटी बनायी और सिंहासन पर राम की चरण पादुकाएँ रख दीं। शत्रुघ्न, भरत की आज्ञा से राज्य का कार्य चलाने लगे। इस प्रकार भरत ने अपने चरित्र का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया।

प्रश्न 9.'कर्मवीर भरत' के आधार पर कैकेयी का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर- ‘कर्मवीर भरत’ के स्त्री पात्रों में कैकेयी का चरित्र सर्वोपरि है। उसमें साहस, दृढ़ता, राजनीतिक कुशलता, विवेकशीलता, जनहित भावना, पुत्र-प्रेम आदि आदर्श भारतीय नारी के गुण विद्यमान हैं। उसके चरित्र की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
1.युद्ध-निपुण वीरांगना – कैकेयी का चरित्र एक वीरांगना का चरित्र है। उसने नारी होकर अबला बनना नहीं सीखा है। युद्ध भूमि में भी वह अपने पति के साथ गयी थी और संकट में उनके प्राणों की रक्षा की थी।
2.आदर्श माता – कैकेयी स्वाभिमानी होने के साथ-साथ आदर्श माता भी है। वह अपने पुत्रों को केवल सुखी ही नहीं देखना चाहती, अपितु उनके गौरव को भी बढ़ाना चाहती है। वह अपने पुत्रों को उनकी शिक्षा-दीक्षा और सुरुचि के अनुसार कार्य में नियोजित करना चाहती है। वह प्रत्येक पुत्र के जीवन का विकास उसकी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहती है, जिससे वे समाज, राष्ट्र और मानवता की अधिकाधिक सेवा कर सकें।
3.राष्ट्रीय और समाजवादी दृष्टिकोण अपनाने वाली आदर्श नारी- कैकैयी के चरित्र की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका राष्ट्रीय और समाजवादी दृष्टिकोण है। उसकी विचारधारा केवल अपने पुत्रों और परिवार तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह सम्पूर्ण राष्ट्र और मानवता का भी कल्याण सोचती है।
4.राजनीति में कुशल – कैकेयी नारी होकर भी राजनीति में पूर्ण कुशल है। वह राज़नीति के दाँव-पेच समझती है और समय के अनुसार उनका प्रयोग करना भी जानती है। राम को वन भेजने में भी उसकी राजनीतिक सूझ-बूझ का प्रमाण मिलता है। वनवासियों को अनुशासन सिखाना भी उसके अनुसार एक राजनीतिक दायित्व है।
5. अपराध स्वीकार करने वाली – खण्डकाव्य के कथानक के अनुसार कैकेयी ने जो कुछ भी किया उसके पीछे उसका कोई भी स्वार्थ नहीं था और न तो कोई बुरा भाव ही था। परन्तु जब परिस्थितियाँ बदल जाती हैं तथा परिणाम बुरे निकलने लगते हैं तो कैकेयी अपने आप को अपराधिनी स्वीकार कर लेती है तथा स्वयं ही अपने विषय में कह उठती है-
इस दुःखान्त नाटक की मैं हूँ सूत्रधारिणी
हरे-भरे रघुकुल में प्रलय – विनाशकारिणी।