भारतीय कृषक (किसान) की समस्या और समाधान
[ रूपरेखा – (1) प्रस्तावना (2) भारत में कृषि का महत्त्व, (3) वर्तमान शिक्षा प्रणाली, (4) किसान की कठिनाइयाँ ]
प्रस्तावना – भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनता ग्रामों में निवास करती है। यह कहना भी सर्वथा उचित ही प्रतीत होता है कि ग्राम ही भारत की आत्मा है, लेकिन रोजगार और अन्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। ग्रामीणों के इस पलायन को रोकने के लिए सरकार को गाँवों के विकास की ओर ध्यान देना होगा, अन्यथा इससे कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है जिसके कारण खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न हो सकता है। ग्राम भारतीय सभ्यता के प्रतीक हैं।
भारत में कृषि का महत्त्व – खेती भारत का मुख्य उद्योग है। यहाँ की 80 प्रतिशत जनता खेती करती है। यह किसानों का देश है। यहाँ सभी उद्योग खेती पर ही निर्भर हैं। खेती और किसान की दशा ही भारत की दशा है। पर यह खेद की बात है भारत में किसान की जैसी शोचनीय दशा है वैसी किसी और की नहीं। अँग्रेजी राज्य में किसानों और खेती के बारे में कभी सोचा ही नहीं गया, सोचने की उन्हें आवश्यकता भी नहीं थी । 15 अगस्त सन् 1947 को परतन्त्रता के काले बादलों को चीरता हुआ स्वतन्त्रता का सूर्य उदित हुआ, उसकी किरणों के प्रकाश में भारत के नेताओं ने भारत के किसानों को देखा और तब से निरन्तर भारत की सरकार किसान और खेत की उन्नति के लिए प्रयत्नशील है लेकिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उन्हें विकसित भारत की वैज्ञानिक तकनीक का इतना लाभ नहीं पहुँच रहा है जितना पहुँचना चाहिए था ।
किसान की वर्तमान स्थिति – पर हुआ क्या? एक लम्बा समय बीत जाने पर आज भी किसान की दशा सन्तोषजनक नहीं है। उसे भर पेट अन्न और शरीर ढाँपने को पर्याप्त वस्त्र भी नहीं मिलता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसकी दशा में कुछ अन्तर नहीं हुआ, किन्तु सुधार जितना होना चाहिए था, उतना हुआ नहीं। सबका अन्नदाता किसान आज भी अन्न को तरसता है।
जब कोई अपने दुधमुँहे बच्चे को आधा पेट खिलाकर और अपनी नवोढ़ा प्रियतमा को चिथड़ों में लिपटी देखकर भी साँस लेता रहे, तो क्या यह जीवन है? स्वतन्त्र भारत के अन्नदाता की यह दशा देखकर भला किसका हृदय टूक-टूक न हो जायेगा ?
किसान की कठिनाइयाँ- पर दोष किसका है-स्वयं किसान अपनी दशा सुधारना नहीं चाहता, यह कहा नहीं जा सकता । अपनी उन्नति भला कौन न चाहेगा? सरकार लाखों रुपये प्रतिवर्ष खेती के विकास पर लगाती है। करोड़ों रुपये की योजनाएँ खेत और किसान के लिए चल रही हैं, फिर वही प्रश्न है कि दोषी कौन है? कौन-सी बाधा है जो किसान का रास्ता रोकती है और उसे तेजी से आगे नहीं बढ़ने देती? यदि विचार कर देखें तो कठिनाइयाँ साफ दिखाई पड़ती हैं। किसान अविद्या के अन्धकार में है, अभी तक हमारे देश के अधिकतर किसान अशिक्षित हैं। किसानों के जो बच्चे पढ़ भी गये हैं या पढ़ रहे हैं, वे खेती से दूर भागते हैं और नौकरी खोजते फिरते हैं। यह भावना देश के लिए बहुत ही घातक है। इसका परिणाम यह है कि किसान अशिक्षित है, इसीलिए वह खेती के नये वैज्ञानिक तरीकों और साधनों से अवगत नहीं हो पाता है। सरकारी सुविधाओं का किसान जानकारी होने के कारण लाभ नहीं उठा पाता है। किसान की दूसरी कठिनाई उसकी आर्थिक स्थिति से सम्बन्ध रखती है । अब भी किसान को निम्न ब्याज की दर तथा आसान किस्तों पर ऋण नहीं मिल पाता है। सरकार की ओर से सहकारी बैंकों की स्थापना करके उसकी इस कठिनाई को दूर करने का प्रयत्न हो रहा है। पर एक तो ये बैंक अभी थोड़े हैं और फिर अशिक्षित होने के कारण किसान इनसे पूरा लाभ नहीं उठा पाते हैं। कुछ स्वार्थी कर्मचारियों की धाँधलेबाजी भी किसानों को लाभों से वंचित रहने को विवश करती है। सिंचाई के साधनों के विकास पर सरकार रुपया पानी की तरह बहा रही है परन्तु अब भी बहुत-से किसान ऐसे हैं जो सूखे से पीड़ित हैं। अतिवृष्टि की रोकथाम का भी अभी तक कोई उपाय नहीं हो पाया है। अच्छी खाद और अच्छे बीज के अभाव से भी किसान की परेशानी बढ़ी हुई है। इसके अतिरिक्त किसान के सामने एक यह भी कठिनाई है कि सरकार की दी हुई सुविधाओं से उसे जितना लाभ हो रहा है, उतना ही टैक्सों का उस पर भार बढ़ता जा रहा है।
ये ही सब कठिनाइयाँ हैं जिनके कारण किसान और खेती का विकास नहीं हो पा रहा है। इसके अतिरिक्त ऋण, खाद, बीज तथा वैज्ञानिक कृषि उपकरणों की सुलभता आदि की व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है।
बेरोजगारी की समस्या और उसका समाधान
[ रूपरेखा – (1) प्रस्तावना (2) समस्या की व्यापकता -, (3) समस्या के कारण, (4) समस्या का समाधान (5) उपसंहार ]
प्रस्तावना – भारत देश सन् 1947 में भारत स्वतन्त्रता हुआ । गुलामी के इस लम्बे समय में विदेशियों ने देश को चूस लिया था और जनता प्राय: निष्प्राण और पीड़ित थी । हम आजाद हुए परन्तु अनेक भयानक समस्याएँ हमारे सामने मुँह बाये खड़ी थीं, जिनमें से एक भीषणतम समस्या थी – ‘बेकारी की समस्या’ । देश की आधे से अधिक जनता बेकार थी ।
समस्या की व्यापकता – बेकारी की समस्या केवल भारत में ही नहीं है, अन्य देशों में भी यह समस्या व्याप्त है। मशीनों के आविष्कार ने मनुष्यों को बेकार और पंगु बना डाला है। एक मशीन हजारों आदमियों को बेकार कर बैठती है। श्रमिकों से भी बढ़कर यह समस्या शिक्षित वर्ग के लिए भयानक हो रही है। श्रमिक की आवश्यकता सीमित होती है, उसका जीवन-स्तर नीचा होता है, कोई भी अच्छा या बुरा काम करने में उसे शर्म नहीं आती । श्रमिक तो किसी न किसी तरह जीवन निर्वाह कर लेता है परन्तु मध्यम श्रेणी के लोग इस समस्या से अधिक पिस रहे हैं। मध्यम श्रेणी के लोग शारीरिक परिश्रम नहीं कर पाते हैं, छोटा काम करने में उन्हें शर्म आती है और अपने अनुकूल काम उन्हें मिलता नहीं । समस्याएँ पूँजीपतियों और मजदूरों की भी हैं, पर इन दोनों के बीच में जो वर्ग है, वह नितान्त पीड़ित और बेकार है।
बेकारी की समस्या के कारण ही भिक्षुओं और भुखमरी की समस्या उत्पन्न हो गयी है, लूटमार और चोरी की भावना बढ़ती जा रही है, नैतिक पतन हो रहा है और सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त होता जा रहा है। रोजगार दिलाने वाले दफ्तरों के सामने बेकारों की भीड़ बढ़ती जा रही है। जब तक इस समस्या का समाधान नहीं होता तब तक देश सुखी और सम्पन्न नहीं हो सकता ।
समस्या के कारण- देश की दिनों दिन बढ़ती हुई जनसंख्या, निर्धनता तथा हजारों वर्षों की गुलामी इस समस्या के बढ़ने में सहायक हुई है । विदेशियों ने भारत के उद्योगों को समाप्त कर दिया था जिससे इस देश में बेकारी फैलना स्वाभाविक ही था । जाति-पाँति के भेद-भाव ने भी बहुत से लोगों को बेकार कर दिया है। छोटे-छोटे उद्योग ठप्प हो गये हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों और कारखानों को तो इस समस्या का मूल कारण ही कह सकते हैं। इन मशीनों ने जहाँ एक ओर उत्पादन बढ़ाया तथा श्रम की बचत की, वहीं दूसरी ओर हजारों भारतीयों को भूखों मरने के लिए विवश कर दिया है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली – भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली भी बेकारी की समस्या का एक प्रमुख कारण है। यह शिक्षा प्रणाली विदेशियों की देन है जिसका उद्देश्य क्लर्क बनाना था। आज की शिक्षा नवयुवकों को आत्मनिर्भर न बनाकर उनमें श्रम के प्रति अवज्ञा और नौकरी की भावना पैदा करती है। यही कारण है कि देश में जैसे-तैसे शिक्षा का प्रचार हो रहा है बेकारी की समस्या और विकराल रूप धारण करती जा रही है। नारी शिक्षा का प्रचार होने पर अब स्त्रियाँ भी नौकरी के लिए निकल पड़ी हैं। इससे समस्या और भी जटिल हो गयी है। आज के विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान से शून्य तथा परिश्रम करने में असमर्थ होकर समाज में प्रवेश करते हैं। नौकरशाही भारत से चली गयी, परन्तु नौकरशाही की भावना उत्पन्न करने वाली शिक्षा प्रणाली आज भी देश में विद्यमान है। आज का विद्यार्थी केवल एक भावना लेकर कॉलेज से निकलता है कि वह कहीं नौकरी करेगा।
समस्या का समाधान- इस जटिल समस्या को सुलझाने के लिए इसके कारणों को मिटाना होगा। सबसे पहले हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि मशीनों का बढ़ता हुआ प्रभाव किस प्रकार रोका जाये। मशीनों को होना चाहिए किन्तु मनुष्य का दास-उसे स्वामी नहीं बनना चाहिए। कुटीर उद्योगों का विकास होना चाहिए। छोटे-छोटे उद्योग जैसे बान बँटना, टोकरी बनाना आदि विकसित हों। महात्मा गाँधी के अनुसार सूत कातने, कपड़ा बुनने का काम यदि घर-घर में होने लगे तो उससे एक ओर तो बेकारी की समस्या हल होगी और उसके साथ ही दूसरी ओर गरीबी और भुखमरी की समस्या भी हल हो जायेगी। इसके अतिरिक्त शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा। शिक्षा केवल किताबी न होकर व्यावहारिक होना चाहिए। कॉलेजों में पढ़कर नवयुवक केवल क्लर्क होकर ही नहीं निकलने चाहिए बल्कि अच्छे दस्तकार, कलाकार तथा श्रेष्ठ किसान होकर निकलना चाहिए। हमारा देश कृषि-प्रधान है किन्तु देश के पढ़े-लिखे लोग खेती से घृणा करते हैं। शिक्षा में कृषि और श्रम के प्रति आदर और महत्त्व की भावना पैदा करने की क्षमता होनी चाहिए।
उपसंहार – हमारे देश की राष्ट्रीय सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए निरन्तर प्रयत्न कर रही है किन्तु समस्या सुलझने के बजाय उलझती जा रही है। वास्तव में समस्या का मूल शिक्षा में है। जब तक शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन न होगा तब तक समस्या का समाधान होना कठिन है।
पर्यावरण प्रदूषण : कारण और निवारण
[ रूपरेखा – (1) प्रस्तावना (2) वायु प्रदूषण, (3) जल प्रदूषण, (4) रेडियोधर्मी प्रदूषण (5) ध्वनि प्रदूषण (6)रासायनिक प्रदूषण (7)प्रदूषण पर नियन्त्रण (8) वनस्पतियाँ ]
प्रस्तावना – प्रदूषण वायु, जल एवं स्थल की भौतिक तथा रासायनिक विशेषताओं का वह अवांछनीय परिवर्तन है जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक दूसरे जन्तुओं, पौधों, औद्योगिक संस्थाओं तथा दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुँचाता है। तात्पर्य यह है कि जीवधारी अपने विकास, बुद्धि और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए सन्तुलित वातावरण पर निर्भर करते हैं। किन्तु कभी-कभी वातावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा कम अथवा अधिक हो जाया करती है जिससे वातावरण दूषित हो जाता है।
विभिन्न प्रकार के प्रदूषण — प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ- साथ हुआ है । विकासशील देशों में वायु और पृथ्वी भी प्रदूषण से ग्रस्त हो रही है। भारत जैसे देशों में तो घरेलू कचरे और गन्दे जल को बहाने का प्रश्न भी एक विकराल रूप धारण करता जा रहा है।
- वायु प्रदूषण – वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। श्वास द्वारा हम ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं । हरे पौधे प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन निष्कासित करते रहते हैं। इससे वातावरण में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बना रहता है। मनुष्य अपनी आवश्यकता के लिए वनों को काटता है, परिणामतः वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ के कारण वातावरण में विभिन्न प्रकार की हानिकारक गैसें बढ़ती जा रही हैं। औद्योगिक चिमनियों से निष्कासित सल्फर डाइऑक्साइड गैस का प्रदूषकों में प्रमुख स्थान है। इसके प्रभाव से पत्तियों के किनारे और नसों के मध्य का भाग सूख जाता है।
वायु प्रदूषण से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे श्वसन सम्बन्धी बहुत-से रोग हो जाते हैं। इनमें फेफड़ों का कैंसर, दमा और फेफड़ों से सम्बन्धित दूसरे रोग भी हैं।
- जल प्रदूषण – सभी जीवधारियों के लिए जल बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्त्व, कार्बनिक- अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं। यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं जो साधारणतया जल में उपस्थित नहीं होते हैं, तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है और वह प्रदूषित जल कहलाता है।
- रेडियोधर्मी प्रदूषण – परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणविक परीक्षणों से जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण होता है जो आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा । विस्फोट के स्थान पर तापक्रम इतना अधिक हो जाता है कि धातु तक पिघल जाती है। एक विस्फोट के समय रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमण्डल की बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं, जहाँ पर ये ठण्डे होकर संघनित अवस्था में बूँदों का रूप ले लेते हैं और बाद में ठोस अवस्था में बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में फैलते रहते हैं और वायु के झोंकों के साथ समस्त संसार में फैल जाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में नागासाकी तथा हिरोशिमा में हुए परमाणु बम के विस्फोट से अनेक मनुष्य अपंग हो गये थे ।
- ध्वनि प्रदूषण – अनेक प्रकार के वाहन, मोटरकार, बस, जेट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउडस्पीकर, बाजे एवं कारखानों के सायरन, मशीनों की आवाज से ध्वनि प्रदूषण होता है। ध्वनि की लहरें जीवधारियों की क्रियाओं पर प्रभाव डालती हैं। अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति में कमी होती है, उसे नींद ठीक प्रकार से नहीं आती है और नाड़ी संस्थान सम्बन्धी एवं अनिद्रा का रोग उत्पन्न हो जाता है, यहाँ तक कि कभी- कभी पागलपन का रोग भी उत्पन्न हो जाता है। कुछ ध्वनियाँ छोटे-छोटे कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं, परिणामत: अनेक पदार्थों का प्राकृतिक रूप से परिपोषण नहीं हो पाता है।
- रासायनिक प्रदूषण – प्राय: कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक, घासनाशक और रोगनाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइडों का अन्धाधुन्ध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा रहा है।
प्रदूषण पर नियन्त्रण – पर्यावरण को प्रदूषित होने से रोकने तथा उनके समुचित संरक्षण के प्रति गत कुछ वर्षों से समस्त विश्व में चेतना आयी है। आधुनिक युग के आगमन व औद्योगीकरण से पूर्व यह समस्या इतनी गम्भीर कभी नहीं हुई थी, और न इस परिस्थिति की ओर वैज्ञानिकों तथा अन्य लोगों का इतना ध्यान ही गया था। औद्योगीकरण और जनसंख्या की वृद्धि ने संसार के सामने प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न कर दी है।
प्रदूषण को रोकने के लिए व्यक्तिगत और सरकारी, दोनों ही स्तरों पर पूरा प्रयास आवश्यक है। जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण के लिए भारत सरकार ने सन् 1974 के ‘जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम लागू किया तथा इस कार्य हेतु बोर्ड बनाये। इन बोर्डों ने प्रदूषण के नियन्त्रण की अनेक योजनाएँ तैयार की हैं। औद्योगिक कचरे के लिए भी मानक तैयार किये गये हैं।
उद्योगों से होने वाले ध्वनि तथा अन्य प्रदूषणों को रोकने के लिए भारत सरकार ने हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय यह लिया है कि नये उद्योगों को लाइसेंस दिये जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे के निवारण की समुचित व्यवस्था करनी होगी और इसकी पर्यावरण विशेषज्ञों से स्वीकृति प्राप्त करनी होगी ।
वनस्पतियाँ – वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोकने तथा वृक्षारोपण के लिए जन-सामान्य को प्रोत्साहित किया जाये। वनों को न काटें और वनस्पतियाँ उगाएं। समाज द्वारा किये गये वृक्षारोपण से पर्यावरण को शुद्ध करने में सहायता मिल सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकार प्रदूषण की रोकथाम के लिए पर्याप्त सजग है। पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर ही हम आने वाले समय में और अधिक अच्छा और स्वास्थ्यप्रद जीवन जी सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे। वृक्ष एवं वनस्पतियाँ हमारे स्वस्थ जीवन हेतु उपयोगी हैं। वे हमारे पर्यावरण को सुरक्षित तथा संरक्षित रखकर प्रदूषण से मुक्ति दिलाने में सहायक होते हैं।