जातक कथा

दिये गये संस्कृत गद्यांशों का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए-

पहला गद्यांश

(1) अतीते प्रथमकल्पे जनाः एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्तम् । सर्वाकारपरिपूर्णं पुरुषं राजानमकुर्वन् । चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एकं सिंहं राजानमकुर्वन् । ततः शकुनिगणाः हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते । एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते परस्परमवलोकयन्तः एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यवोचन् ।

सन्दर्भ- यह गद्यांश ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – बीते हुए प्रथम कल्प में मनुष्यों ने एक सुन्दर, सौभाग्य प्राप्त, सब प्रकार के आकार से पूर्ण पुरुष को राजा बनाया। चौपाया ने भी इकट्ठे होकर सिंह को राजा बनाया। तब पक्षियों के समूह ने हिमालय प्रदेश में एक पत्थर पर इकट्ठे होकर “मनुष्यों में राजा जाना जाता है और चौपायों में भी। हमारे बीच में कोई राजा नहीं है। बिना राजा के निवास नहीं रहा करता । किसी एक को राजा के स्थान पर स्थापित करना चाहिए” – इस प्रकार कहा। इसके पश्चात उन्होंने एक-दूसरे को देखते हुए एक उल्लू को देखकर ‘यह हमें पसन्द हैं-ऐसा कहा ।

दूसरा गद्यांश

(2) अथैकः शकुनिः सर्वेषां मध्यादाशयग्रहणार्थं त्रिकृत्वः अश्रावयत्। ततः एकः काकः उत्थाय ‘तिष्ठ तावत्’, अस्य एतस्मिन् राज्याभिषेककाले एवं रूपं मुखं, क्रुद्धस्य च कीदृशं भविष्यति ! अनेन हि क्रुद्धेन अवलोकिताः वयं तप्तकटाहे प्रक्षिप्तास्तिला इव तत्र तत्रैव धङ्क्ष्यामः । ईदृशो राजा मह्यं न रोचते’ इत्याह-

सन्दर्भ- यह गद्यांश ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – तत्पश्चात् एक पक्षी ने सभी के मध्य (उनका) मत (आशय) जानने के लिए तीन बार सुनाया (अर्थात् घोषणा की)। तब एक कौवे ने उठकर कहा- “जरा ठहरो! इस राज्याभिषेक के समय (जब) इसका ऐसा मुख है तो क्रोध आने पर कैसा होगा? इसके क्रुद्ध होकर देखने से हम गर्म कड़ाही में डाले गए तिलों की तरह जहाँ-के-तहाँ जल जाएँगे। ऐसा राजा मुझे अच्छा नहीं लगता। “

तीसरा गद्यांश

(3) अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदाः सिंहं राजानमकुर्वन् । मत्स्या आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्णहंसम् । तस्य पुनः सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। स तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्चित्तरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराजः तस्यै वरं दत्त्वा हिमवति शकुनिस संन्यपतत्। नानाप्रकाराः हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन् महति पाषाणतले संन्यपतन् । हंसराजः आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश । सा शकुनिस अवलोकयन्ती मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं मे स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत। मयूरः ‘अद्यापि तावन्मे बलं न पश्यसि’ इति अतिगर्वेण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महतः शकुनिसङ्घस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान् । नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंसः लज्जितः ‘अस्य नैव ह्रीः अस्ति न बर्हाणां समुत्थाने लज्जा । नास्मै गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि’ इत्यकथयत् ।

सन्दर्भ- यह गद्यावतरण ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक कथा’ पाठ के ‘नृत्यजातकम्’ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – बीते हुए पहले कल्प में चौपायों ने सिंह को राजा बनाया। मछलियों ने आनन्द मत्स्य को और पक्षियों ने सुवर्ण हंस को राजा बनाया। उस सुवर्ण राजहंस की पुत्री हंस बालिका अत्यन्त रूपवती थी। उस (सुवर्ण राजहंस) ने उसे वर दे दिया कि वह अपने मन पसन्द पति का वरण कर ले। हंसराज उस (अपनी पुत्री) को वरदान देकर हिमालय पर्वत पर पक्षियों के समूह में शामिल हो हुए गया। हंसराज ने अपनी पुत्री को आदेश दिया कि वह आकर अपने मनपसन्द स्वामी का वरण करे। उसने पक्षियों के समूह में देखते नीलमणि जैसे रंग की गर्दन वाले सुन्दर दृष्टि वाले मोर को देखकर कहा- ‘यह मेरा स्वामी बने।’ ऐसा मोर ने ‘आज भी तो मेरी शक्ति को नहीं देखते हो’, इस प्रकार अति अहंकार से लज्जा को छोड़कर पक्षियों के बड़े समूह के बीच पंख फैलाकर नाचना प्रारम्भ कर दिया। नाचता हुआ वह नग्न हो गया। हंस लज्जित हो गया। ‘इसे लज्जा नहीं है, इसे पूँछ उठाने में लज्जा नहीं है। इस निर्लज्ज को अपनी पुत्री नहीं दूँगा’ ऐसा कहा ।

दिये गये संस्कृत श्लोक का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए-

(1) न मे रोचते भद्रं वः उलूकस्याभिषेचनम्।
अक्रुद्धस्य मुखं पश्य कथं क्रुद्धो भविष्यति ॥
सन्दर्भ – यह अवतरण ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक कथा’ पाठ में ‘उलूकजातकम् से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – (हे भाइयो) आपकी यह उल्लू का अभिषेक करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। इसका बिना क्रोध के मुख सोचो क्रोध में कैसा हो जायेगा?