दिये गये संस्कृत गद्यांशों व श्लोकों का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए-
पहला गद्यांश व श्लोक
(1) ततः कदाचिद् द्वारपाल आगत्य महाराजं भोजं प्राह-‘देव, कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि वर्तते’ इति । राजा ‘प्रवेशय’ इति प्राह। ततः प्रविष्टः सः कविः भोजमालोक्य अद्य मे दारिद्र्यनाशो भविष्यतीति मत्वा तुष्टो हर्षाश्रूणि मुमोच । राजा तमालोक्य प्राह- ‘कवे, किं रोदिषि ‘ इति । ततः कविराह – राजन् ! आकर्णय मद्गृहस्थितिम् –
अये लाजानुच्चैः पथि वचनमाकर्ण्य गृहिणी ।
शिशोः कर्णौ यत्नात् सुपिहितवती दीनवदना ॥
मयि क्षीणोपाये यदकृतं दृशावश्रुबहुले ।
तदन्तःशल्यं मे त्वमसि पुनरुद्धर्तुमुचितः ॥
सन्दर्भ—प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘संस्कृत भाग’ में संकलित ‘भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
हिन्दी अनुवाद – इसके बाद तभी द्वारपाल ने आकर महाराज भोज से कहा-‘ – “देव, जिसके शरीर पर लँगोटी – मात्र शेष है, ऐसा विद्वान् द्वार पर उपस्थित है।” राजा (बोला) ‘प्रवेश कराओ’। तब प्रवेश कर चुकेउस कवि ने भोज को देखकर “आज मेरी दरिद्रता का नाश होगा” – ऐसा मानकर सन्तुष्ट हो हर्ष के आँसू ढलका दिए (अर्थात् प्रसन्नता से रोने लगा ) । राजा ने उसे देखकर कहा – ‘कवि ! क्यों रोते हो?’ तब कवि ने कहा-‘राजन्! मेरे घर की स्थिति को सुनो-
श्लोक – मेरी दीनमुख पत्नी ने (पथ में) – ‘अरे! खीलें ले लो’ – ऐसे उच्च स्वर को सुनकर बच्चों के कानों को यत्नपूर्वक बन्द कर दिया और मुझ साधनहीन पर जो अश्रुपूरित दृष्टि डाली, मेरे हृदय में चुभे उस काँटे को (अर्थात् जो दुःखभरी दृष्टि मेरे हृदय में काँटे की तरह चुभ गई, उसको) निकालने में आप ही समर्थ हैं।
दूसरा गद्यांश व श्लोक
(2) राजा शिव, शिव इति उदीरयन् प्रत्यक्षरं लक्षं दत्त्वा प्राह-‘ त्वरितं गच्छ गेहम, त्वद्गृहिणी खिन्ना वर्तते।’ अन्यदा भोजः श्रीमहेश्वरं नमितुं शिवालयमभ्यगच्छत् । तदा कोऽपि ब्राह्मणः राजानं शिवसन्निधौ प्राह- – देव !
अर्द्ध दानववैरिणा गिरिजयाप्यर्द्ध शिवस्याहृतम् ।
देवेत्थं जगतीतले पुरहराभावे समुन्मीलति ॥
गङ्गा सागरमम्बरं शशिकला नागाधिपः क्ष्मातलम्।
सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत् त्वां मां तु भिक्षाटनम् ॥
सन्दर्भ—प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘संस्कृत भाग’ में संकलित ‘भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
हिन्दी अनुवाद – राजा ने “शिव-शिव” ऐसा कहते हुए प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ देकर कहा- “शीघ्र ही घर जाओ, तुम्हारी पत्नी दुःखी है।” दूसरे दिन भोज श्रीमहेश्वर (शिवजी) को नमस्कार करने के लिए शिव के मन्दिर में गए। तब किसी ब्राह्मण ने शिव के समीप राजा से कहा-
श्लोक – शिव का आधा भाग दानव-वैरी अर्थात् विष्णु ने और आधा पार्वती ने ले लिया। हे राजन्! इस प्रकार पृथ्वी – तल पर शिव का अभाव दिखाई देने पर गंगा सागर में, चन्द्रकला आकाश में, शेषनाग रसातल में, सर्वज्ञता और अधीश्वरता आप में आ गई और भिक्षाटन मेरे पास आ गया। (इस प्रकार शिव के सम्पूर्ण गुण बँट गए)।
तीसरा गद्यांश व श्लोक
(3) राजा तुष्टः तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ । अन्यदा राजा समुपस्थितां सीतां प्राह- ‘ देवि! प्रभातं वर्णय’ इति । सीता प्राह-
विरलविरलाः स्थूलास्ताराः कलाविव सज्जनाः ।
मन इव मुनेः सर्वत्रैव प्रसन्नमभून्नभः॥
अपसरति च ध्वान्तं चित्तात्सतामिव दुर्जनः ।
व्रजति च निशा क्षिप्रं लक्ष्मीरनुद्यमिनामिव ॥
सन्दर्भ—प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘संस्कृत भाग’ में संकलित ‘भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
हिन्दी अनुवाद—राजा ने सन्तुष्ट होकर प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दीं। दूसरे दिन राजा ने अपने समीप उपस्थित सीता (नामक कवयित्री) से कहा – “देवी! प्रभात (प्रात:काल) का वर्णन करो।” सीता ने कहा-
श्लोक – कोई-कोई बड़े (मोटे) तारे (ऐसे) दिखाई दे रहे हैं, जैसे कलियुग में सज्जन । मुनि के मन के समान आकाश सर्वत्र प्रसन्न (निर्मल) हो गया है। जैसे सज्जनों के चित्त से दुर्जन (दूर होते हैं), वैसे ही अन्धकार दूर हो रहा है तथा रात्रि उद्योगहीनों की लक्ष्मी की तरह तेजी से भागी जा रही है (अर्थात् आलसी पुरुष के धन की भाँति निशा शीघ्र समाप्त हो रही है) ।
चौथा गद्यांश व श्लोक
(4) राजा तस्यै लक्षं दत्त्वा कालिदासं प्राह- ‘सखे, त्वमपि प्रभातं वर्णय’ इति। ततः कालिदासः प्राह–
अभूत् प्राची पिङ्गा रसपतिरिव प्राप्य कनकं ।
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि ॥
क्षणं क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपराः ।
न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः ॥
सन्दर्भ—प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘संस्कृत भाग’ में संकलित ‘भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
हिन्दी अनुवाद – राजा ने उसको भी लाख मुद्राएँ देकर कालिदास से कहा- “हे सखे! तुम भी प्रभात का वर्णन करो।” तब कालिदास ने कहा-
श्लोक-पूर्व दिशा सुवर्ण को प्राप्त कर पारे की भाँति पीली हो गई है। गँवारों की सभा में विद्वज्जन की तरह चन्द्रमा कान्तिहीन हो गया है। अनुद्यमी राजाओं की तरह तारे क्षणभर में क्षीण हो गए हैं। धनहीनों के गुणों की तरह दीपक नहीं चमक रहे हैं।
राजा ने अति सन्तुष्ट होकर उसको (भी) प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दीं।
