सुभाषितरत्नानि

दिये गये संस्कृत श्लोक का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए-

भाग -1

(1)भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती ।
तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्॥1॥
सन्दर्भ-यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – भाषाओं में सबसे मुख्य, मधुर और स्वर्गीय देवभाषा (संस्कृत) है। उससे भी अधिक मधुर उसका काव्य और उस (काव्य) से भी अधिक मधुर सुभाषित (सूक्ति वचन) होता है

(2) सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥ 2 ॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – जो सुख चाहता है, उसे विद्या कहाँ? जो विद्या चाहता है, उसे सुख कहाँ ? इसलिए यदि सुख चाहने वाला हो तो उसे विद्या त्याग देनी चाहिए, और यदि विद्या चाहने वाला हो तो उसे सुख त्याग देना चाहिए।

(3)जल – बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः ।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ॥3॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद-पानी की एक-एक बूँद गिरने से धीरे-धीरे घड़ा भर जाता है। सब विद्याओं, धर्म और धन का यही कारण होता है कि इनका थोड़ा-थोड़ा संचय करना चाहिए।

(4)काव्य-शास्त्र- विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥ 4 ॥
सन्दर्भ – यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है। इसमें ‘सुभाषित’ की महत्ता बतायी गयी है।
हिन्दी अनुवाद- बुद्धिमानों का समय काव्य-शास्त्रों के विनोद से बीतता है और मूर्खो का समय बुरे व्यसन से, नींद अथवा लड़ाई-झगड़ों में बीतता है।

भाग -2

(5)न चौरहार्यं न च राजहार्यं
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥5॥
सन्दर्भ – यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसमें ‘सुभाषित’ की महत्ता बतायी गयी है।
हिन्दी अनुवाद – विद्या रूपी धन सब धनों में प्रधान है। इसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है, न इससे भार बढ़ता है। यह व्यय करने पर नित्य बढ़ता ही है।

(6)परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥ 6 ॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद — जो मित्र परोक्ष में काम बिगाड़ता है और प्रत्यक्ष में (सामने) प्रिय मधुर बोलता है, वह मित्र उस विष के घड़े के समान है जिसके मुख पर तो दूध हो परन्तु अन्दर विष भरा हो, ऐसे मित्र को त्याग देना चाहिए।

(7) उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥ 7 ॥
सन्दर्भ – यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद-सूर्य लाल ही उदय होता है और लाल ही छिप जाता है। वास्तव में जो महापुरुष होते हैं, उनमें सम्पत्ति में भी और विपत्ति में भी एकरूपता ही रहती है।

(8)विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥ 8 ॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद-दुष्ट मनुष्य की विद्या विवाद के लिए होती है, धन घमंड के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ित करने के लिए होती है तथा इसके विपरीत सज्जन मनुष्य की विद्या ज्ञान के लिए होती है, धन त्याग (दान) के लिए और शक्ति रक्षा के लिए होती है।

भाग -3

(9)सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥ 9 ॥
सन्दर्भ – यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – एकदम (बिना विचारे) कोई काम नहीं करना चाहिए। अविवेक महान आपत्तियों का कारण है। लक्ष्मी गुणों की लोभी होती है। सोच-विचार कर काम करने वाले को लक्ष्मी स्वयं वरण कर लेती है।

(10)वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति ॥ 10 ॥
सन्दर्भ- यह पद्य संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – जो वज्र से भी अधिक कठोर होते हैं और फूल से भी अधिक कोमल होते हैं, ऐसे अलौकिक पुरुषों के चित्तों को भला कौन जान सकता है?

(11)प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम् ।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्
एकत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥11॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद-जो अपने पिता को अपने अच्छे आचरणों से प्रसन्न करता है, वही सच्चा पुत्र है। जो अपने पति का ही कल्याण चाहती है, वही पत्नी है। जो आपत्ति और सुख में समान व्यवहार करता है, वही सच्चा मित्र है। इन तीनों वस्तुओं को संसार में पुण्यशाली लोग ही प्राप्त करते हैं।

(12)कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मीं
कीर्तिं सूते सूते दुष्कृतं या हिनस्ति ।
शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां
धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः ॥12॥
सन्दर्भ – यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद-धीर पुरुषों ने शुद्ध, शान्त, सब कलाओं की माता सत्य और मधुर वाणी को ऐसी गाय बताया है जो इच्छाओं को प्राप्त कराती है, अलक्ष्मी को दूर करती है, कीर्ति को उत्पन्न करती है तथा पाप को नष्ट करती है।

भाग - 4

(13)व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः
न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतयः संश्रयन्ते ।
विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं
द्रवति च हिमरश्मावुद्गतेः चन्द्रकान्तः ॥13॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – कोई आन्तरिक कारण है जो पदार्थों को आकर्षक बनाता है। प्रसन्नताएँ पदार्थों की बाहरी उपाधियों के आश्रित नहीं होतीं, क्योंकि कमल सूर्य के उदय होने पर खिलता है और चन्द्रकान्त मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती है।

(14)निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥14॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है
हिन्दी अनुवाद – नीति में निपुण लोग चाहे निन्दा करें या प्रशंसा करें, लक्ष्मी चाहे आ जाये या अपनी इच्छा से चली जायें। चाहे आज ही मृत्यु हो जाये अथवा युगों के बाद हो, किन्तु धीर पुरुष न्याय के मार्ग से पग नहीं डिगाते ।

(15)ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः ।
सा योनिः सर्ववैराणां सा हि लोकस्य निर्ऋतिः॥15॥
सन्दर्भ- यह पद्य ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है।
हिन्दी अनुवाद – पागल और घमण्डी मनुष्य की वाणी को ऋषियों ने राक्षसी बताया है। वह सब प्रकार के वैरों की जन्म देने वाली है और लोक की विपत्ति है।